शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

नागार्जुन घर आये

धनबाद में एक कार्यक्रम था। बाबा नागार्जुन की अध्यक्षता में काव्य-पाठ भी था। मैंने जो कविताएँ सुनाई उन में बच्चों का जिक्र था। कोलकाता लौटते समय बाबा ने पूछा कि क्या बाल-बच्चे साथ में रहते हैं? मैं ने कहा, हाँ। बाबा ने कहा, मैं मिलने जाऊँगा। बाबा को गीतेश शर्मा जी के जनसंसार में पहुँचाकर मैं दफ्तर चला गया। इस बीच मैं खुद तो बाबा से कई बार मिल आया लेकिन बच्चों को उन से मिलवाने की बात ध्यान में नहीं रही। एक शाम दफ्तर से लौटते हुए मैं, बाबा से मिलने जनसंसार पहुँचा। यह क्या, मुझे देखते ही बाबा ने कहा, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। जल्दी से निकल चलो, मेरा अपहरण होनेवाला है। मुझे हक्का-बक्का देखकर कुढ़ते हुए कहा कोई आज मुझे घसीटकर अपने घर ले जाने के लिए आनेवाला है। उन्होंने अपना झोला समेटा और जाने को तत्पर! मैं बिल्कुल तैयार नहीं था। उस समय मोबाइल, फोन आदि हमारे व्यवहार की सीमा में नहीं था। घर पर खबर करना संभव नहीं था। खैर, बाबा तो ठहरे, बाबा। निकल पड़े। धर्मतल्ला में टैक्सी मिलना कोई बहुत आसान नहीं था। किसी तरह एक टैक्सी मिली। थोड़ी देर चलने के बाद टैक्सी जाम में थी। बाबा की अपहरण गाथा का प्रवाह जारी था। ड्राइवर बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा था। उसके अंदेशे को दूर करने के लिए मैं ने कहा, ये बाबा नागार्जुन हैं। ड्राइवर ने बाबा को प्रणाम किया और उनकी कई कविताएँ, चूल्हा रोया, अंडा बच गया, इंदु जी आदि अपने ढंग से दुहराई। बाबा के पूछने पर उसने बताया कि वह गोपालगंज का रहनेवाला है, इंटर तक पढ़ा है। ड्राइवर को एहसास था कि वह अपने समय के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति की सेवा में है। शायद बाबा के भीतर भी एहसास था कि वे अपने पाठक की देख-रेख में चल रहे हैं। दोनो गदगद! मकाम पर पहुँचा। मैं ने भाड़ा चुकाया। ड्राइवर बाबा को प्रणाम करते हुए वापस जाने की तैयारी में जैसे अपने अंदर की रिक्तता को चेहरे पर आने से रोक नहीं पा रहा था। बाबा की कबीराई आँख से ड्राइवर के चेहरे पर उभर आई रिक्तता छिपी नहीं रही। बाबा ने उसे हाथ के इशारे से रोका। बटुआ से दो रुपये का सिक्का निकालकर उसे देते हुए कहा, चाह पी लेना। ड्राइवर के चेहरे की रिक्तता अचनाक भर गई और आँख से छलछलाकर बाहर झाँकने लगी। उसने भर्राये गले से कहा, नहीं बाबा मैं इसे खर्चा नहीं करूँगा, सम्हालकर रखूँगा, सब को बताऊँगा। मेरे लिए यह पैसा नहीं मेडल है। पैसा तो मैं आपके आशीर्वाद से कमाता ही रहता हूँ, मैडल पहली बार मिला है, मैं इसे नहीं गँवाऊँगा। बाबा की दाढ़ी हँस पड़ी। मैं विभोर। आज जब मैं इस पर सोचता हूँ तो समझ नहीं पाता कि किसने किस को पुरस्कृत किया! बाबा ने उस ड्राइवर को या उस ड्राइवर ने बाबा को! पैसा तो मैं भी कमाता रहता हूँ। लेकिन आज तक वैसा दो रुपया नहीं कमा पाया जिसे किसी के हथेली पर उस तरह रख सकूँ, जिस तरह बाबा ने रखा। बाबा तो चले गये लेकिन वह नागार्जुन कभी न जाने के लिए मेरे घर आ गये जिस नागार्जुन के पास उस तरह से किसी के हाथ में रखने लायक दो रुपया था। काश कि मैं भी अपनी जिंदगी में वैसा दो असंभव रुपया कमा पाता!

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