बुधवार, 17 सितंबर 2014

मुक्तिबोध को समझने की कोशिश में

मुक्तिबोध को समझने की कोशिश में
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आजकल हवा में शोर बहुत और संवाद कम है। इस शोर में अपने समकालीनों से भी संवाद मुश्किल हो रहा है, पुरखों से संवाद की तो बात ही क्या। अपने पुरखों से संवाद करना हमारी जरूरत है। यह संवाद कैसे हो सकता है और यह जरूरी– ही क्यों है! यह संभव है उनकी स्मृतियों और लिखे हुए को उनके परिप्रेक्ष्य में समझा जाये और उसके प्रासंगिक अंश को अपने जीवन अनुभव के रूप में बरता जाये कुछ इस तरह से कि यह हमारा अपना जीवन अनुभव है। ध्यान में होना ही चाहिए कि उनके अंतर्विरोधों को उनके तथा उनके समय के साथ ही अपने तथा अपने समय के अंतर्विरोधों से जोड़कर भी देखना जरूरी है। यह जटिल है उतना ही संवेदनशील है। 
एक गहरे आत्म-साक्षात्कार से गुजरा होगा। यह आत्म-धिक्कार तो कतई नहीं हो लेकिन अपनी धारणाओं के आंतरिक टूट-फूट को सहने तथा उसकी क्षति-पूर्त्ति के लिए तैयार रहना होगा। शुरू में ही साफ कर देना उचित है कि इस आत्म-साक्षात्कार की बात उनके प्रसंग में हैं जो किसी-न-किसी स्तर पर खुद को मार्क्सवाद से जोड़ते हैं या कम-से-कम खुद को मार्क्सवाद से जोड़ने का विरोध नहीं करते हैं।
एक दौर था जब हिंदी साहित्य के वैचारिक या आलोचनात्मक मिजाज के भीतरी परिवृत्त में मार्क्सवाद सक्रिय था, और अधिकतर संदर्भ में भल्गर समझ के साथ सक्रिय था। उस समय, एक ऐसी बाइनरी बन गई थी कि या तो आप मार्क्सवाद के समर्थक हैं या फिर विरोधी हैं। बीच की कोई स्थिति नहीं हो सकती थी। यह कैसे हुआ! क्यों हुआ! इसका असर क्या हुआ! ये सब अलग-अलग दिखते हैं, कदाचित हैं भी लेकिन अपनी बुनियाद में एकाकार भी हैं। इन पर अलग से बात की जा सकती है। हिंदी के वैचारिक में सक्रिय मार्क्सवाद सक्रियता और सामाज-परिवर्त्तन या व्यवस्था-परिवर्त्तन की गहरी नैतिक और राजनीतिक आकांक्षा से जुड़कर जो रूप ग्रहण करता है, वह असल में मार्क्सवाद न होकर मार्क्साद-लेनिनवाद है।
लेनिन का शासन काल दिसंबर 1922 से जनवरी 1924 तक का है। लगभग 14 महीना लेनिन का शासन काल रहा। इसके बाद जनवरी 1924 से मार्च 1953 तक स्टालीन का शासन काल रहा। लगभग 30 साल। लेनिन की कार्य-दृष्टि और स्टालीन की कार्य-शैली के तर्द्वंद्व और अंतर्विरोध पर तथा रूस में इसके प्रभाव और वैश्विकता अलग से बात की जा सकती है। यहाँ तो बस यह समरण ही काफी है कि 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ सक्रिय हुआ और 1953 तक आते-आते वह आत्म-गतिरुद्धता की तरफ बढ़ने लगा। इसी दौरान विश्वयुद्ध भी हुआ और आधुनिक भारत में जनतांत्रिक व्यवस्था का रूपाकार भी संगठित हुआ। चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह से महात्मा गाँधी की भारत में राजनीतिक सक्रियता को जोड़कर देखे तो वह 1918 का साल था। 1921 से तो महात्मा गाँधी राजनीति में पूरी तरह सक्रिय और और प्रभावी हो गये थे। उस दौर में किसी भी भारतीय के लिए निरपेक्ष रहना मुमकीन नहीं था। 47 वर्ष की जिंदगी (13 नवंबर 1917 से 11 सितंबर 1964) जीनेवाले मुक्तिबोध का भी यही दौर था। 
इतनी चर्चा के बाद अब सोचना यह है कि मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे या नहीं थे या यह कि मुक्तिबोध को मार्क्सवाद से जोड़ना उचित है या नहीं। मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, लेकिन उस अर्थ में मार्क्सवादी नहीं थे, जिस अर्थ में मार्क्सवाद-विरोधी मार्क्सवाद को समझते हैं। मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, लेकिन उस अर्थ में मार्क्सवादी नहीं थे, जिस अर्थ में मार्क्सवाद के कर्त्ता-धरता मार्क्सवाद को समझते हैं। मार्क्सवाद-विरोधी के अर्थ में भी मार्क्सवादी नहीं थे और मार्क्सवाद के कर्त्ता-धरता के अर्थों में भी मार्क्सवादी नहीं थे! तो फिर कैसे मार्क्सवादी थे! इस जटिल प्रश्न को समझना मेरे लिए तो बहुत ही मुश्किल है! मुश्किल है मगर ध्यान रहे, मुक्तिबोध गलत दर्शन-शास्त्र ▬▬ (false philosophy) के प्रति बहुत अधिक सतर्क थे। यह सतर्कता ‘ब्रहमराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ तक फैली हुई है।
चलिए, वैश्विक कारकों के साथ स्थानिक कारकों की ओर भी ताक-झाँक कर लें। स्थानिक कारकों में सबसे महत्त्वपूर्ण कारक का नाम है, अज्ञेय! जी सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायान ‘अज्ञेय’! 07 मार्च 1911 से 04 अप्रैल 1984 जीवन काल है अज्ञेय का। अज्ञेय भी हिंदी साहित्य के शिखर-आसीन संस्कृति पुरुष हैं। अज्ञेय साहित्यिक व्यक्तित्व हिंदी साहित्य के वैचारिक मिजाज का एक और परिवृत्त था। इस परिवृत्त से छिटकाव कई बार मुक्तिबोध के मार्क्सवाद से लगाव के रूप में प्रकट होता है, जिसे भक्त लोग अज्ञेय ‘और’ मुक्तिबोध के रूप में नहीं अज्ञेय ‘या’ मुक्तिबोध के रूप में समझते कम तथा समझाते अधिक रहे हैं। मुक्तिबोध के मार्क्सवाद से लगाव को समझने के लिए इस छिटकाव को समझना होगा। समझने में भूल हो सकती है, यदि इस छिटकाव की स्थानिक समझ के दबाव में वैश्विक संदर्भ आँख से ओझल हो जाये। नजर, स्थानिक और वैश्विक दोनों पर टिकाये रखना जरूरी और अनिवार्य है।
मुक्तिबोध ने 1939 में लिखा, 'मैं व्यक्तिवादी (egoist) नहीं हूँ। क्षमा करना। मुझे उससे अत्यंत घृणा है। मेरा अन्तर तो विस्तार चाहता है▬▬ वह इतना बड़ा होना चाहता है कि सम्पूर्ण विश्व होगा उसमें समा जाये। परन्तु शायद इस जीवन में यह संभव नहीं है▬▬ मुझे कई दफ़ा मरना होगा, तब समझ में आयेगा कि जीवन क्या है?
मैं साम्यवादी या समाजवादी भी नहीं हूँ। विश्व-समाज आजकल पतन के गहन गर्त में है, जिसका कारण है उनका गलत दर्शन-शास्त्र ▬▬ (false philosophy)। आजकल का समाज व्यक्ति की गुणमत्ता (genious) को कुचल देता है, केवल मूर्ख और पेटू majority के लिए। लोगों के मनों को निर्जीव और जड़वत् समझ लिया गया है। उनको चाहे जिस काम में लगाया जा सकता है। बुद्धिमान और गुणवान व्यक्ति उत्पन्न करना आज के समाज का इष्ट नहीं, यह मशीनमैन चाहता है।
समाज का धर्म बुद्धिवान और गुणवान (genious) मनुष्यों को पैदा करना होना चाहिए।'[1]

इसको ऐसे समझा जा सकता हैः
1. 1939 भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए भी महत्त्वपूर्ण साल है। 1939 में ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस कई तरह के विरोध के बावजूद काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे। यह कोई छोटी घटना नहीं थी, इसके प्रभाव पर विस्तार से बात की जा सकती है। यहाँ संकेत ही काफी है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना मात्र तीन साल पहले हुई थी। विश्वयुद्ध का वह दौर था। 47 वर्ष की जिंदगी (13 नवंबर 1917 से 11 सितंबर 1964) जीनेवाले मुक्तिबोध को 22 वर्ष की उम्र में यह सफाई देनी पड़ी कि वे व्यक्तिवादी नहीं हैं। यानी किसी तरफ से उन पर यह आरोप लगा होगा कि वे व्यक्तिवादी हैं। इस तरह के आरोप, जो वह होता नहीं है वही होने का आरोप, लेखकों पर लगते ही रहते हैं। ऐसा आरोप कौन या किस तरह के लोग लगा सकते हैं, यह अनुमान बहुत मुश्किल नहीं है। वे लोग तो इस तरह का आरोप नहीं लगा सकते हैं जो व्यक्तिवाद के समर्थक विचार या विचारधारा से जुड़े होंगे। मुक्तिबोध आत्म-विस्तार की भी बात करते हैं।
2. मुक्तिबोध आत्म-विस्तार की भी बात करते हैं, लेकिन जोर देकर अपने साम्यवादी या समाजवादी होने का भी निषेध करते हैं। यह निषेध क्यों करना पड़ा! इसे समझना भी जरूरी है। क्या यह साम्यवादी या समाजवादी होने का निषेध की बात व्यक्तिवादी होने के आरोप से तंग आकर सार्वजनिक तौर पर कही गई है या इसमें कोई गहरी बात है! मेरा मन कहता है इसमें कई गहरी बात है, इन पर गौर करना आज भी प्रासंगिक है। वह कौन सा गलत दर्शन-शास्त्र ▬▬ (false philosophy) है जिसकी ओर मुक्तिबोध इशारा करते हैं? वह दर्शन जो, व्यक्ति की गुणमत्ता (genious) को कुचल देता है, लोगों के मनों को निर्जीव और जड़वत् समझता, जो समझता है कि लोगों को चाहे जिस काम में लगाया जा सकता है, जो विचारधारा बुद्धिमान और गुणवान व्यक्ति की जगह मशीनमैन चाहता है। समझना क्या सचमुच कठिन है कि मुक्तिबोध किस विचारधारा की किन कमियों की ओर संकेत कर रहे थे, पूरी मनोव्यथा के साथ! आज भी साम्यवादी या समाजवादी विचारधारा के लोगों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस संदर्भ में गहराई से सोचना चाहिए। इस संदर्भ में गहराई से सोचना संभव हुआ होता तो परिदृश्य कुछ और ही होता! जी क्या होने से क्या होता यह कहना बहुत मुश्किल है, लेकिन आज भी इसे आजमाया तो जा ही सकता है।
3. मुक्तिबोध भले ही कहें कि वे साम्यवादी या समाजवादी भी नहीं हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि वे यह न भी हों तो भी होना वही चाहते रहे; हाँ अधिक समावेशी साम्यवादी या समाजवादी। नेमि बाबू को उन्होंने व्यक्तिगत पत्र में जो लिखा उसकी भाषा और दर्द को समझने की जरूरत है। लिखा, 'I have been again made P.M. (Party Member ▬▬ कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य) I have to do certain fixed duties, and it is a happiness to do them. In an ordanance factory I shall loss this. More than that, I shall have to resign from the party. And I cannot even bear the idea of this....'[2] पार्टी के तत्कालीन महासचिव को जो, स्पष्ट कारणों से, बेनामी था वह भी बार-बार समझने की कोशिश उपयोगी हो सकती है।

मुक्तिबोध को समझना जरूरी है। इस संदर्भ में गहराई से सोचना और पुरखों के अंतर्द्वंद्व को समझना जरूरी और जारी प्रक्रिया है ...
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[1] मुक्तिबोधः आधुनिक समाज का धर्मः कर्मवीर, खण्डवा, 1 अप्रैल 1939। मुक्तिबोध रचनावली 6: राजकमल प्रकाशन

[2] मुक्तिबोधः नेमिचन्द्र जैन को लिखा गया पत्र, दिनांक 12.3.43: मुक्तिबोध रचनावली 6 : राजकमल प्रकाशन

7 टिप्‍पणियां:

  1. कल 19/सितंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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