सोमवार, 22 सितंबर 2014

साहित्य में प्रतिबद्धताः पुनर्परीक्षा एक प्रस्ताव

प्रतिबद्ध हूँ
संबद्ध हूँ
आबद्ध हूँ ▬ नागार्जुन
प्रगतिशील साहित्य में प्रतिबद्धता का सवाल हमेशा महत्त्वपूर्ण रहा है। यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि प्रगतिशीलता और प्रतिबद्धता दोनों के ही स्वरूप, लक्षण, अवधारणा, अर्थ आदि पर बहस भी काफी रही है। भीष्म साहनी (मेरी कथा-यात्रा के निष्कर्ष : दस प्रतिनिधि कहानियाँ सीरीज़ :किताब घर 1994 में) कहते हैं : 
प्रत्येक लेखक अंतत: अपने संवेदन, अपनी दृष्टि, जीवन की अपनी समझ के अनुसार लिखता है। हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि मात्र विचारों के बल पर लिखी गई रचना, जिसके पीछे जीवन का प्रामाणिक अनुभव न हो, अक्सर अधकचरी रह जाती है।
                                                                       ▬ भीष्म साहनी
यानी हमारे पुरखों ने हमें सावधान किया है। यहाँ, नागार्जुन और भीष्म साहनी के संदर्भ से बात शुरू की जा सकती है। साहित्य में प्रतिबद्धता की पुनर्परीक्षा के संदर्भ में यहाँ बात नागार्जुन और भीष्म साहनी के संदर्भ से शुरू की जा रही है, इसे इन्हीं से सीमित नहीं माना जा रहा है।


प्रतिबद्धता किसके प्रति का जवाब चाहे जिस रूप में दिया जाये उसका अंतिम निष्कर्ष अनिवार्य रूप से विचारधारा विद्यमान रहती है। कौन-सी विचारधारा का जवाब भी अनिवार्य रूप से मार्क्सवाद होता है। दर्शन और साहित्य में बहुत अंतर होता है। दर्शन विचार से विचार की यात्रा है जब कि साहित्य जीवन से विचार और विचार से जीवन तक की यात्रा करता है। दर्शन में विचार का वाहन भी विचार होता है, साहित्य में विचार का वाहन विचार नहीं भाव होता है। दर्शन का मुख्य संबंध ज्ञान से होता है जबकि साहित्य का मूल संबंध संवेदना से होता है। इसलिए साहित्य में ‘विचारधारा’ के साथ और संगति में ‘भावधारा’ भी साथ-साथ यात्रा करती है। ध्यान में लाया जा सकता है कि मुक्तिबोध के यहाँ ‘विचारधारा’ के साथ और संगति में ‘भावधारा’ की बात बारबार उठती रही है। यहाँ से देखने पर यह बात साफ होती है कि ‘भावधारा’ के अभाव में साहित्य अपना मानुष तत्त्व खोने लगता है। यह भावधारा बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह सच है कि भावधारा में छल के लिए बहुतेरे अवसर होते हैं, सच यह भी है कि विचारधाराओं में भी छल के अवसर होते हैं। यहाँ अपने पुरखों से हासिल सीख के बल पर यह भी कह सकता हूँ कि मार्क्सवाद के बाहर कोई विचारधारा होती ही नहीं है, जो दिखती है वह विचारधारा नहीं भावधारा होती है। आज मुख्यधारा की राजनीति और आज की आर्थिकी अपनी गति और स्वीकृति विचारधारा से नहीं भावधारा से हासिल करती है। मार्क्सवादी राजनीति विचारधारा की बात करती हुई भावधारा केे चरम निषेध पर जाकर अपनी गति और स्वीकृति दोनों खोती रही है। ‘भावधारा’ से जुड़कर राजनीति अपने अंदर मानुष-तत्त्व के लिए जगह बनाकर अपनी गति और स्वीकृति का अवसर पा सकती है। राजनीति और साहित्य दोनों का गहरा सरोकार मानुष-तत्त्व और मानुष-सत्ता से है। विचारधारा और भावधारा से राजनीति और साहित्य के संबंध को देखें तो ‘भावधारा’ के अभाव में राजनीति महज सत्ता-संग्राम बनकर रह जाती है और ‘विचारधारा’ के अभाव में साहित्य महज वाग्विलास बन कर रह जाता है। जीवन में और इसलिए साहित्य में भी ‘विचारधारा’ और ‘भावधारा’ की संगति और संहति के संतुलन का सवाल प्रमुख रहता है। बदलाव की घनीभूत अवस्था संक्रमण कहलाती है। ‘विचारधारा’ और ‘भावधारा’ संक्रमण की दिशा और दशा का नियमन करती है, यथासंभव संक्रमण की पीड़ा को कम करती है। एक और बात का यहाँ उल्लेख जरूरी है, वह यह कि ‘भावधारा’ हमें मनुष्य होने के कारण बिना किसी विशेष शिक्षण-प्रशिक्षण के स्वत: हासिल होती है -- भावधारा मनुष्य की नैसर्गिक थाती है।


अन्यत्र भी मैं ने रेखांकित करने की कोशिश की है, विचारधारा को अर्जित करना पड़ता है, इसके लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की जरूरत होती है। नैसर्गिक होने के कारण भावधारा अधिक बलवती होती है। विचारधारा को बलवान बनाना पड़ता है -- विचारधारा को संगठित करना पड़ता है। भावधारा में बह जाना आसान होता है। विचारधारा में बने रहना कठिन होता है। बावजूद इसके यह बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि भावधारा में संगठित होकर विचारधारा में बदल जाने की भी नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है। भावधारा और विचारधारा में स्वभावगत विरोध का संबंध नहीं होता है। यह जरूर है कि चतुर-सुजान लोग भावधारा और विचारधारा में विरोध का संबंध विकसित करने में दिन-रात लगे रहते हैं। ऐसे लोग भावधारा को विचारधारा का स्थानापन्न बना देने की युक्ति भिड़ाते रहते हैं। भावधारा का विचारधारा में परिष्करण और अंतरण एक स्वाभाविक एवं अग्रमुखी प्रक्रिया है। बिना किसी परिष्करण के भावधारा को विचारधारा का एवजी बनाना प्रतिगामी प्रक्रिया है। गौर से देखने पर यह साफ होते बहुत देर नहीं लगती है कि विचारधारा के विरोधी किस प्रकार भावधारा का इस्तेमाल अपना मतलब गाँठने के लिए करते हैं। इसलिए आज कुछ ऐसे लोग भी विचारधारा के सवाल पर घृणा से सीधे नाक-भौं सिकोरते हुए भावधारा में बहते हुए देखे जा सकते हैं, जिनके लिए कल तक विचारधारा का बड़ा महत्त्व था। दूसरी तरफ कुछ लोग विचारधारा के सवाल पर अनुराग से भावुक-लगाव प्रदर्शित करते हुए विचारधारा को जड़ बनाने के कूट-उद्यम में लग जाते हैं। अक्सर, इस भावुक लगाव को, अपने कूट-उद्यम को वे अपनी विचारधारात्मक निष्ठा मानते हैं। ये दोनों ही प्रकार के लोग विचारधारा को समझने में एक ही प्रकार की गलती करते हैं और एक ही प्रकार से विचारधारा की गतिमयता को क्षतिग्रस्त करते हैं। घृणा और प्रेम की समाज-सापेक्षता पर ठीक से गौर नहीं कर पाने के कारण ही ऐसी गलतियाँ बार-बार दुहरायी जाती रहती है। यह सच है कि सामान्य लोगों के लिए विचारधारा के प्रति लगाव और अलगाव का बहुत बड़ा आधार भावुकता ही रचती है। तथापि, यह बात सामान्य लोगों के लिए ही सच है। ध्यान में यह रखना भी आवश्यक है कि यह ‘सामान्य’ तत्त्व अपने मात्रात्मक विस्तार के साथ सामान्य को विशेष में बदल देता है। प्राकृतिक अनुभव यह है कि भूमि कठिन होती है और आकाश नरम। सांस्कृतिक अनुभव यह है कि भूमि अपेक्षाकृत निरापद होती है और आकाश अपेक्षाकृत जोखिमों से भरा हुआ। विचारधारा के लिए भूमि से ऊपर उठकर आकाश तक पहुँचना जरूरी होता है।


कोई भी महत्त्वपूर्ण रचनाकार साहित्य में वैचारिकी के महत्त्व को जानता है। अकुंठित विवेक को सक्रिय रखने की चुनौती को भी खूब समझता है। विभिन्न शक्तिकेंद्रों के द्वारा तैयार किये गये बंधन की पगबाधाओं को भी जानता है और इससे मुक्त रहकर रचना में सक्रिय रहने के महत्त्व को भी जानता है। दिमागी गुलामी से आजाद होना रचना और रचनाकार की पहली और प्रामाणिक प्रेरणा होती है। अब जो लोग अपने को प्रतिबद्ध रचनाकार मानते हैं, उन्हें बार-बार अपने खुद के रचनाकार से सवाल करना चाहिए कि उनकी प्रतिबद्धता किससे है। क्या उनकी प्रतिबद्धता उनके 'स्व' के संकुचन का निषेध करने में मदद करती है या नहीं, अविवेकी भीड़ की 'भेड़ियाधसान' का हिस्सा बन जाने से रोकती है या नहीं! यदि हमारी प्रतिबद्धता हमारे रचनाकार के स्व के संकोचन या अविवेकी भीड़ का हिस्सा बनने से नहीं रोकती है तो, हमें अपनी प्रतिबद्धता की पुनर्परीक्षा की कष्टकर प्रक्रिया से गुजरना ही होगा। यह प्रक्रिया कष्टकर इसलिए होगी कि  प्रतिबद्धता की पुनर्परीक्षा असल में खुद को कसौटी पर चढ़ाने की प्रक्रिया होगी। कसौटी पर चढ़ने की प्रक्रिया कष्टकर तो होती ही है, साहसिक भी होती है!

दिमागी गुलामी से आजादी साहित्य का मुख्य सरोकार है। साहित्य में ‘विचारधारा’ और ‘भावधारा’ की संगति और संहति के संतुलन का सवाल प्रमुख है। इस संतुलन को साधते हुए अपने और साथ ही अपने पाठकों के लिए दिमागी गुलामी से आजादी हासिल करने का रास्ता निकालना साहित्यकार की मूल प्रतिबद्धता है। लेखक की वास्तविक प्रतिबद्धता मानसिक गुलामी से आजाद होने का आधार रचती है। जिस प्रतिबद्धता से मानसिक गुलामी की जकड़बंदी और मजबूत ही होती है, वह लेखक की प्रतिबद्धता नहीं हो सकती है, किसी और की भले हो।



अज्ञेय के संदर्भ में कृष्णदत्त पालीवाल कहते हैं, 'अज्ञेय को पुराने मठाधीशों, आचार्यों, विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों से निरन्तर विरोध झेलना पड़ा। इस अन्धी, विरोधी हिन्दी आलोचना से जुड़ा एक पीड़ादायक इतिहास है। ••• दरअसल, अज्ञेय किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए हैं। अपने रचना-कर्म में वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं, उनकी दृष्टि में मानव के लिए स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता से बड़ा कोई मूल्य नहीं है। इस स्वाधीन-चिन्तन के कारण ही हिन्दी की असाध्यवीणा अज्ञेय के हाथों ही बजी। वे ही इसके प्रियंवद साधक हैं।' स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता और विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकता क्या होती है, इसे अज्ञेय को समझने के अगले प्रयास में देखने की कोशिश करेंगे साथ ही विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों की पहचान की भी कोशिश करेंगे।

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