निंदकों और प्रशंसकों के पार
अज्ञेय को समझने के क्रम में
अज्ञेय को पुराने मठाधीशों, आचार्यों, विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों से
निरन्तर विरोध झेलना पड़ा। इस अन्धी, विरोधी हिन्दी
आलोचना से जुड़ा एक पीड़ादायक इतिहास है। ••• दरअसल,
अज्ञेय किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार नहीं
हुए हैं। अपने रचना-कर्म में वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं, उनकी दृष्टि में मानव के लिए स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता से बड़ा कोई
मूल्य नहीं है। इस स्वाधीन-चिन्तन के कारण ही हिन्दी की असाध्यवीणा अज्ञेय के
हाथों ही बजी। वे ही इसके प्रियंवद साधक हैं।
पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
अज्ञेय निश्चित रूप से हिंदी के बड़े कवि हैं। उन पर गहराई से विचार किया जाना
जरूरी है। हिंदी में पाठ और उसकी आलोचना को लेकर गंभीर समस्या शुरू से ही रही है।
किसी बड़े रचनाकार के संदर्भ में यह सच है कि निंदकों ने उन्हें समझने में जितनी
दुविधाएँ खड़ी की, उलझनें बढ़ाई उससे कहीं अधिक प्रशंसकों ने भी यह काम किया।
निंदा और प्रशंसा के व्यूह से बाहर रचनाकार और उसकी रचना को समझना हिंदी में
दुर्लभ रहा है। यह बात जितनी अज्ञेय पर लागू होती है उतनी ही मुक्तिबोध,
नागार्जुन, यशपाल, रांगेय राघव, रामविलास शर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु पर भी लागू होती
है। प्रकृत पाठकों के अभाव और उससे भी अधिक पाठकों के अभाव के बोध के कारण रचना और
आलोचना दोनों की क्षति होती रही है। बहुत देर हो चुकी है, फिर भी रचना और
रचनाकारों को समझने में नई पहल की जा सकती है। अज्ञेय, मुक्तिबोध, नागार्जुन,
यशपाल, रांगेय राघव, रामविलास शर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु ये कुछ नाम उदाहरण के लिए ही
यहाँ उल्लिखित हैं, यह सूची इन उल्लिखितों से सीमित नहीं है। इस क्रम में अज्ञेय।
कृष्णदत्त पालीवाल हिंदी के प्रोफेसर और आलोचक रहे हैं। ऊपर उनके एक मंतव्य को
उद्धृत किया गया है। यह आलोचना की न तो भाषा हो सकती है और न शैली। इस उद्गार में
एक प्रशंसक का निंदकों का जवाब है। यह उद्धरण उस कठिनाई को समझने के लिए लिया गया
है, जिन से मुक्त होना जरूरी है। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकता और
स्वाधीन-चिंतन को समझना से पहले जरूरी है।
विचारधारा के प्रति
प्रतिबद्ध
गुलाम मानसिकता और
स्वाधीन-चिंतन
विचारधारा को लेकर हिंदी में बहुत
उलझन रही है। विचारधारा के सवाल मूलतः
प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और लेखन में प्रगतिशीलता की पहचान तथा उभार से
जुड़ा हुआ है। विचारधारा से जुड़े लोगों के समक्ष साहित्य की संभावना को मुक्ति के
नये प्रसंग से जोड़ने की चुनौती थी। साहित्य मूलतः मुक्ति का स्वप्न है। विरेचन,
मोक्ष, दमित वासनाओं का उन्मोचन
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