न कविता आसान है, न क्रांति मगर हम हैं कि बस किये जा रहे हैं
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आज संस्कृति की चर्चा बहुत होती है, सभ्यता की बहुत कम, लगभग न के बराबर। पहले सभ्यता की चर्चा अधिक होती
थी। ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, उत्पादन, वितरण, भागीदारी, भोग आदि की प्रक्रियाओं और
इन प्रक्रियाओं में बदलाव के साथ सभ्यता बनती है। सभ्यता के आधार पर संस्कृति विकसित
होती रहती है। अकारण नहीं है कि 14 मई 1941 को अपने
जन्मदिन के अवसर पर रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो अंतिम संदेश दिया उसका शीर्षक ‘सभ्यता
का संकट’ है। ‘मानव धर्म’
में रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रेरक और पोषक परंपरा के रूप में रामानंद
के साथ ही रज्जब जी, कबीर, नाभा,
रविदास आदि की न सिर्फ चर्चा की बल्कि उनकी सामजिक-सांस्कृतिक
विष्णुप्रभता और प्रासंगिकता को आधुनिकता के प्राणवायु से जोड़ दिया। अकारण नहीं
है कि ‘मानव धर्म’ का ईश्वर ‘मानव’ है और धर्म ‘प्रेम’
है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविता में एक ऐसी दुनिया की कामना की
जिसमें ‘चित्त
भय शून्य हो और माथा ऊँचा हो’! ‘भारत में राष्ट्रीयता’
शीर्षक अपने प्रबंध में भी रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो ध्यान
दिलाया है वह भी मूलतः सभ्यता के स्वरूप से ही संबंधित है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा
है कि ‘जो लालच ताकतवर राष्ट्रों के लिए घातक है,
वह कमजोर के लिए उससे भी बड़ा खतरा है। भारतीय जीवनधारा में
मैं यह स्थिति नहीं देखना चाहता, भले ही यह अमरता के देवता का ही वरदान क्यों न हो। हमारे
जीवन को बाहर से सादा फिर भी भीतर से उच्च रहने दो। हमारी सभ्यता सामाजिक सहयोग के
अपने उसूलों पर ही रहे न कि आर्थिक शोषण और संघर्ष के रास्ते पर बढ़े। खून
चूसनेवाले अर्थिक राक्षसों के बीच रहते हुए ऐसा कैसे हो सकेगा,
इस पर प्राच्य राष्ट्रों के वे चिंतक सोचें,
जो मानवीय आत्मा में अभी भी विश्वास रखते हैं।’ चिंतक जब अपनी विचारधारा के साथ भावधारा के प्रवाह से जोड़कर
जीवनधारा को अपनी भाषा में उद्घाटित करता है वह कवि के आसन पर पहुँच जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘कविता क्या है’ में कहा, ‘प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का मुख्य अंग है।
ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जायगी त्यों-त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जायगा।
मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को
प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि
ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यों
एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाय, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा।’ मनुष्य
के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों और व्यापारों का स्वार्थ पक्ष लालच
का जाल फैलाता रहता है। इस लालच पर काबू पाना आसान नहीं है। जब लालच सभ्यता का मूल
रसायन बन जाये तो संस्कृति उससे बाहर कैसे हो सकती है!
हमें अपने पुरखों से संवाद करते हुए, सीखना है ▬▬
ब्रह्मांड का पता नहीं पर,
इस सभ्यता का ईश्वर मनुष्य है
मनुष्य से प्रेम इस सभ्यता
का धर्म है।
इस सभ्यता का मुख्य शत्रु
लालच है।
लालच को छुपाने के लिए
सभ्यता आवरण तैयार करती रहती है।
इस आवरण को हटाने में सच्ची
कविता मददगार होती है।
जो कर्म इस आवरण को हटाने
में मददगार हो वही सच्चा कवि-कर्म है।
आवरण तैयार करने में लगी
कविता आसानी से अपना नकली रूप सँवार लेती है।
सच्चा कवि-कर्म कठिन होता
है, लेकिन सभ्यता के परिप्रेक्ष्य को सही रखने के लिए बहुत जरूरी होता है।
सभ्यता के परिप्रेक्ष्य को
सही करने में हम अब तक कामयाब न हो सके। निराला ने हमें ठीक ही चेताया कि दगा की
इस सभ्यता ने दगा की। नतीजा हम सभ्यता के ऐसे दौर से बाहर निकलने में कामयाब नहीं
हो सके जहाँ चित्त भय शून्य हो और माथा ऊँचा। शरणागती सभ्यता के आवरण का वरण करते
हुए हम आज भी ऐसे वतनी हैं जिसका सर उठाकर चलना गुनाह है। पुरखों से संवाद करता
हुआ जो सीखा है, ज्यादा क्या कहूँ चलिए फ़ैज को दुहराता हूँ, ‘निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन के: जहाँ / चली है रस्म के: कोई न सर उठा के चले / जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ (परिक्रमा) को निकले / नज़र चुरा के चले जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले’।
हाँ, न कविता आसान है, न
क्रांति मगर हम हैं कि बस किये जा रहे हैं!
बहुत विचारणीय और सारगर्भित प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआभार सर, कृपया अपनी राय दिया करें। त्रुटियों का संकेत अवश्य करें।
हटाएंBahut sunder ur visharsheel aalekh .... !!!
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