धनबाद में एक कार्यक्रम था। बाबा नागार्जुन की अध्यक्षता में काव्य-पाठ भी था। मैंने जो कविताएँ सुनाई उन में बच्चों का जिक्र था। कोलकाता लौटते समय बाबा ने पूछा कि क्या बाल-बच्चे साथ में रहते हैं? मैं ने कहा, हाँ। बाबा ने कहा, मैं मिलने जाऊँगा। बाबा को गीतेश शर्मा जी के जनसंसार में पहुँचाकर मैं दफ्तर चला गया। इस बीच मैं खुद तो बाबा से कई बार मिल आया लेकिन बच्चों को उन से मिलवाने की बात ध्यान में नहीं रही। एक शाम दफ्तर से लौटते हुए मैं, बाबा से मिलने जनसंसार पहुँचा। यह क्या, मुझे देखते ही बाबा ने कहा, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। जल्दी से निकल चलो, मेरा अपहरण होनेवाला है। मुझे हक्का-बक्का देखकर कुढ़ते हुए कहा कोई आज मुझे घसीटकर अपने घर ले जाने के लिए आनेवाला है। उन्होंने अपना झोला समेटा और जाने को तत्पर! मैं बिल्कुल तैयार नहीं था। उस समय मोबाइल, फोन आदि हमारे व्यवहार की सीमा में नहीं था। घर पर खबर करना संभव नहीं था। खैर, बाबा तो ठहरे, बाबा। निकल पड़े। धर्मतल्ला में टैक्सी मिलना कोई बहुत आसान नहीं था। किसी तरह एक टैक्सी मिली। थोड़ी देर चलने के बाद टैक्सी जाम में थी। बाबा की अपहरण गाथा का प्रवाह जारी था। ड्राइवर बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा था। उसके अंदेशे को दूर करने के लिए मैं ने कहा, ये बाबा नागार्जुन हैं। ड्राइवर ने बाबा को प्रणाम किया और उनकी कई कविताएँ, चूल्हा रोया, अंडा बच गया, इंदु जी आदि अपने ढंग से दुहराई। बाबा के पूछने पर उसने बताया कि वह गोपालगंज का रहनेवाला है, इंटर तक पढ़ा है। ड्राइवर को एहसास था कि वह अपने समय के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति की सेवा में है। शायद बाबा के भीतर भी एहसास था कि वे अपने पाठक की देख-रेख में चल रहे हैं। दोनो गदगद! मकाम पर पहुँचा। मैं ने भाड़ा चुकाया। ड्राइवर बाबा को प्रणाम करते हुए वापस जाने की तैयारी में जैसे अपने अंदर की रिक्तता को चेहरे पर आने से रोक नहीं पा रहा था। बाबा की कबीराई आँख से ड्राइवर के चेहरे पर उभर आई रिक्तता छिपी नहीं रही। बाबा ने उसे हाथ के इशारे से रोका। बटुआ से दो रुपये का सिक्का निकालकर उसे देते हुए कहा, चाह पी लेना। ड्राइवर के चेहरे की रिक्तता अचनाक भर गई और आँख से छलछलाकर बाहर झाँकने लगी। उसने भर्राये गले से कहा, नहीं बाबा मैं इसे खर्चा नहीं करूँगा, सम्हालकर रखूँगा, सब को बताऊँगा। मेरे लिए यह पैसा नहीं मेडल है। पैसा तो मैं आपके आशीर्वाद से कमाता ही रहता हूँ, मैडल पहली बार मिला है, मैं इसे नहीं गँवाऊँगा। बाबा की दाढ़ी हँस पड़ी। मैं विभोर। आज जब मैं इस पर सोचता हूँ तो समझ नहीं पाता कि किसने किस को पुरस्कृत किया! बाबा ने उस ड्राइवर को या उस ड्राइवर ने बाबा को! पैसा तो मैं भी कमाता रहता हूँ। लेकिन आज तक वैसा दो रुपया नहीं कमा पाया जिसे किसी के हथेली पर उस तरह रख सकूँ, जिस तरह बाबा ने रखा। बाबा तो चले गये लेकिन वह नागार्जुन कभी न जाने के लिए मेरे घर आ गये जिस नागार्जुन के पास उस तरह से किसी के हाथ में रखने लायक दो रुपया था। काश कि मैं भी अपनी जिंदगी में वैसा दो असंभव रुपया कमा पाता!
पुरखों से संवादः प्रफुल्ल कोलख्यान
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015
शुक्रवार, 7 नवंबर 2014
लेखनाधीन है, कृपया प्रतीक्षा करें
निंदकों और प्रशंसकों के पार
अज्ञेय को समझने के क्रम में
अज्ञेय को पुराने मठाधीशों, आचार्यों, विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों से
निरन्तर विरोध झेलना पड़ा। इस अन्धी, विरोधी हिन्दी
आलोचना से जुड़ा एक पीड़ादायक इतिहास है। ••• दरअसल,
अज्ञेय किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार नहीं
हुए हैं। अपने रचना-कर्म में वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं, उनकी दृष्टि में मानव के लिए स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता से बड़ा कोई
मूल्य नहीं है। इस स्वाधीन-चिन्तन के कारण ही हिन्दी की असाध्यवीणा अज्ञेय के
हाथों ही बजी। वे ही इसके प्रियंवद साधक हैं।
पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
अज्ञेय निश्चित रूप से हिंदी के बड़े कवि हैं। उन पर गहराई से विचार किया जाना
जरूरी है। हिंदी में पाठ और उसकी आलोचना को लेकर गंभीर समस्या शुरू से ही रही है।
किसी बड़े रचनाकार के संदर्भ में यह सच है कि निंदकों ने उन्हें समझने में जितनी
दुविधाएँ खड़ी की, उलझनें बढ़ाई उससे कहीं अधिक प्रशंसकों ने भी यह काम किया।
निंदा और प्रशंसा के व्यूह से बाहर रचनाकार और उसकी रचना को समझना हिंदी में
दुर्लभ रहा है। यह बात जितनी अज्ञेय पर लागू होती है उतनी ही मुक्तिबोध,
नागार्जुन, यशपाल, रांगेय राघव, रामविलास शर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु पर भी लागू होती
है। प्रकृत पाठकों के अभाव और उससे भी अधिक पाठकों के अभाव के बोध के कारण रचना और
आलोचना दोनों की क्षति होती रही है। बहुत देर हो चुकी है, फिर भी रचना और
रचनाकारों को समझने में नई पहल की जा सकती है। अज्ञेय, मुक्तिबोध, नागार्जुन,
यशपाल, रांगेय राघव, रामविलास शर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु ये कुछ नाम उदाहरण के लिए ही
यहाँ उल्लिखित हैं, यह सूची इन उल्लिखितों से सीमित नहीं है। इस क्रम में अज्ञेय।
कृष्णदत्त पालीवाल हिंदी के प्रोफेसर और आलोचक रहे हैं। ऊपर उनके एक मंतव्य को
उद्धृत किया गया है। यह आलोचना की न तो भाषा हो सकती है और न शैली। इस उद्गार में
एक प्रशंसक का निंदकों का जवाब है। यह उद्धरण उस कठिनाई को समझने के लिए लिया गया
है, जिन से मुक्त होना जरूरी है। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकता और
स्वाधीन-चिंतन को समझना से पहले जरूरी है।
विचारधारा के प्रति
प्रतिबद्ध
गुलाम मानसिकता और
स्वाधीन-चिंतन
विचारधारा को लेकर हिंदी में बहुत
उलझन रही है। विचारधारा के सवाल मूलतः
प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और लेखन में प्रगतिशीलता की पहचान तथा उभार से
जुड़ा हुआ है। विचारधारा से जुड़े लोगों के समक्ष साहित्य की संभावना को मुक्ति के
नये प्रसंग से जोड़ने की चुनौती थी। साहित्य मूलतः मुक्ति का स्वप्न है। विरेचन,
मोक्ष, दमित वासनाओं का उन्मोचन
मंगलवार, 23 सितंबर 2014
न कविता आसान है, न क्रांति मगर हम हैं कि बस किये जाते हैं
न कविता आसान है, न क्रांति मगर हम हैं कि बस किये जा रहे हैं
😢😢😢
आज संस्कृति की चर्चा बहुत होती है, सभ्यता की बहुत कम, लगभग न के बराबर। पहले सभ्यता की चर्चा अधिक होती
थी। ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, उत्पादन, वितरण, भागीदारी, भोग आदि की प्रक्रियाओं और
इन प्रक्रियाओं में बदलाव के साथ सभ्यता बनती है। सभ्यता के आधार पर संस्कृति विकसित
होती रहती है। अकारण नहीं है कि 14 मई 1941 को अपने
जन्मदिन के अवसर पर रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो अंतिम संदेश दिया उसका शीर्षक ‘सभ्यता
का संकट’ है। ‘मानव धर्म’
में रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रेरक और पोषक परंपरा के रूप में रामानंद
के साथ ही रज्जब जी, कबीर, नाभा,
रविदास आदि की न सिर्फ चर्चा की बल्कि उनकी सामजिक-सांस्कृतिक
विष्णुप्रभता और प्रासंगिकता को आधुनिकता के प्राणवायु से जोड़ दिया। अकारण नहीं
है कि ‘मानव धर्म’ का ईश्वर ‘मानव’ है और धर्म ‘प्रेम’
है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविता में एक ऐसी दुनिया की कामना की
जिसमें ‘चित्त
भय शून्य हो और माथा ऊँचा हो’! ‘भारत में राष्ट्रीयता’
शीर्षक अपने प्रबंध में भी रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो ध्यान
दिलाया है वह भी मूलतः सभ्यता के स्वरूप से ही संबंधित है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा
है कि ‘जो लालच ताकतवर राष्ट्रों के लिए घातक है,
वह कमजोर के लिए उससे भी बड़ा खतरा है। भारतीय जीवनधारा में
मैं यह स्थिति नहीं देखना चाहता, भले ही यह अमरता के देवता का ही वरदान क्यों न हो। हमारे
जीवन को बाहर से सादा फिर भी भीतर से उच्च रहने दो। हमारी सभ्यता सामाजिक सहयोग के
अपने उसूलों पर ही रहे न कि आर्थिक शोषण और संघर्ष के रास्ते पर बढ़े। खून
चूसनेवाले अर्थिक राक्षसों के बीच रहते हुए ऐसा कैसे हो सकेगा,
इस पर प्राच्य राष्ट्रों के वे चिंतक सोचें,
जो मानवीय आत्मा में अभी भी विश्वास रखते हैं।’ चिंतक जब अपनी विचारधारा के साथ भावधारा के प्रवाह से जोड़कर
जीवनधारा को अपनी भाषा में उद्घाटित करता है वह कवि के आसन पर पहुँच जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘कविता क्या है’ में कहा, ‘प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का मुख्य अंग है।
ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जायगी त्यों-त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जायगा।
मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को
प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि
ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यों
एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाय, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा।’ मनुष्य
के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों और व्यापारों का स्वार्थ पक्ष लालच
का जाल फैलाता रहता है। इस लालच पर काबू पाना आसान नहीं है। जब लालच सभ्यता का मूल
रसायन बन जाये तो संस्कृति उससे बाहर कैसे हो सकती है!
हमें अपने पुरखों से संवाद करते हुए, सीखना है ▬▬
ब्रह्मांड का पता नहीं पर,
इस सभ्यता का ईश्वर मनुष्य है
मनुष्य से प्रेम इस सभ्यता
का धर्म है।
इस सभ्यता का मुख्य शत्रु
लालच है।
लालच को छुपाने के लिए
सभ्यता आवरण तैयार करती रहती है।
इस आवरण को हटाने में सच्ची
कविता मददगार होती है।
जो कर्म इस आवरण को हटाने
में मददगार हो वही सच्चा कवि-कर्म है।
आवरण तैयार करने में लगी
कविता आसानी से अपना नकली रूप सँवार लेती है।
सच्चा कवि-कर्म कठिन होता
है, लेकिन सभ्यता के परिप्रेक्ष्य को सही रखने के लिए बहुत जरूरी होता है।
सभ्यता के परिप्रेक्ष्य को
सही करने में हम अब तक कामयाब न हो सके। निराला ने हमें ठीक ही चेताया कि दगा की
इस सभ्यता ने दगा की। नतीजा हम सभ्यता के ऐसे दौर से बाहर निकलने में कामयाब नहीं
हो सके जहाँ चित्त भय शून्य हो और माथा ऊँचा। शरणागती सभ्यता के आवरण का वरण करते
हुए हम आज भी ऐसे वतनी हैं जिसका सर उठाकर चलना गुनाह है। पुरखों से संवाद करता
हुआ जो सीखा है, ज्यादा क्या कहूँ चलिए फ़ैज को दुहराता हूँ, ‘निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन के: जहाँ / चली है रस्म के: कोई न सर उठा के चले / जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ (परिक्रमा) को निकले / नज़र चुरा के चले जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले’।
हाँ, न कविता आसान है, न
क्रांति मगर हम हैं कि बस किये जा रहे हैं!
सोमवार, 22 सितंबर 2014
साहित्य में प्रतिबद्धताः पुनर्परीक्षा एक प्रस्ताव
प्रतिबद्ध हूँ
संबद्ध हूँ
आबद्ध हूँ ▬ नागार्जुन
प्रगतिशील साहित्य में प्रतिबद्धता का सवाल हमेशा महत्त्वपूर्ण रहा है। यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि प्रगतिशीलता और प्रतिबद्धता दोनों के ही स्वरूप, लक्षण, अवधारणा, अर्थ आदि पर बहस भी काफी रही है। भीष्म साहनी (मेरी कथा-यात्रा के निष्कर्ष : दस प्रतिनिधि कहानियाँ
सीरीज़ :किताब घर 1994 में) कहते हैं :
यानी हमारे पुरखों ने हमें सावधान किया है। यहाँ, नागार्जुन और भीष्म साहनी के संदर्भ से बात शुरू की जा सकती है। साहित्य में प्रतिबद्धता की पुनर्परीक्षा के संदर्भ में यहाँ बात नागार्जुन और भीष्म साहनी के संदर्भ से शुरू की जा रही है, इसे इन्हीं से सीमित नहीं माना जा रहा है।प्रत्येक लेखक अंतत: अपने संवेदन, अपनी दृष्टि, जीवन की अपनी समझ के अनुसार लिखता है। हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि मात्र विचारों के बल पर लिखी गई रचना, जिसके पीछे जीवन का प्रामाणिक अनुभव न हो, अक्सर अधकचरी रह जाती है।
▬ भीष्म साहनी
प्रतिबद्धता किसके प्रति का जवाब चाहे जिस रूप में दिया जाये उसका अंतिम निष्कर्ष अनिवार्य रूप से विचारधारा विद्यमान रहती है। कौन-सी विचारधारा का जवाब भी अनिवार्य रूप से मार्क्सवाद होता है। दर्शन और साहित्य में बहुत अंतर होता है। दर्शन विचार से विचार की यात्रा है जब कि साहित्य जीवन से विचार और विचार से जीवन तक की यात्रा करता है। दर्शन में विचार का वाहन भी विचार होता है, साहित्य में विचार का वाहन विचार नहीं भाव होता है। दर्शन का मुख्य संबंध ज्ञान से होता है जबकि साहित्य का मूल संबंध संवेदना से होता है। इसलिए साहित्य में ‘विचारधारा’ के साथ और संगति में ‘भावधारा’ भी साथ-साथ यात्रा करती है। ध्यान में लाया जा सकता है कि मुक्तिबोध के यहाँ ‘विचारधारा’ के साथ और संगति में ‘भावधारा’ की बात बारबार उठती रही है। यहाँ से देखने पर यह बात साफ होती है कि ‘भावधारा’ के अभाव में साहित्य अपना मानुष तत्त्व खोने लगता है। यह भावधारा बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह सच है कि भावधारा में छल के लिए बहुतेरे अवसर होते हैं, सच यह भी है कि विचारधाराओं में भी छल के अवसर होते हैं। यहाँ अपने पुरखों से हासिल सीख के बल पर यह भी कह सकता हूँ कि मार्क्सवाद के बाहर कोई विचारधारा होती ही नहीं है, जो दिखती है वह विचारधारा नहीं भावधारा होती है। आज मुख्यधारा की राजनीति और आज की आर्थिकी अपनी गति और स्वीकृति विचारधारा से नहीं भावधारा से हासिल करती है। मार्क्सवादी राजनीति विचारधारा की बात करती हुई भावधारा केे चरम निषेध पर जाकर अपनी गति और स्वीकृति दोनों खोती रही है। ‘भावधारा’ से जुड़कर राजनीति अपने अंदर मानुष-तत्त्व के लिए जगह बनाकर अपनी गति और स्वीकृति का अवसर पा सकती है। राजनीति और साहित्य दोनों का गहरा सरोकार मानुष-तत्त्व और मानुष-सत्ता से है। विचारधारा और भावधारा से राजनीति और साहित्य के संबंध को देखें तो ‘भावधारा’ के अभाव में राजनीति महज सत्ता-संग्राम बनकर रह जाती है और ‘विचारधारा’ के अभाव में साहित्य महज वाग्विलास बन कर रह जाता है। जीवन में और इसलिए साहित्य में भी ‘विचारधारा’ और ‘भावधारा’ की संगति और संहति के संतुलन का सवाल प्रमुख रहता है। बदलाव की घनीभूत अवस्था संक्रमण कहलाती है। ‘विचारधारा’ और ‘भावधारा’ संक्रमण की दिशा और दशा का नियमन करती है, यथासंभव संक्रमण की पीड़ा को कम करती है। एक और बात का यहाँ उल्लेख जरूरी है, वह यह कि ‘भावधारा’ हमें मनुष्य होने के कारण बिना किसी विशेष शिक्षण-प्रशिक्षण के स्वत: हासिल होती है -- भावधारा मनुष्य की नैसर्गिक थाती है।
अन्यत्र भी मैं ने रेखांकित करने की कोशिश की है, विचारधारा को अर्जित करना पड़ता है, इसके लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की जरूरत होती है। नैसर्गिक होने के कारण भावधारा अधिक बलवती होती है। विचारधारा को बलवान बनाना पड़ता है -- विचारधारा को संगठित करना पड़ता है। भावधारा में बह जाना आसान होता है। विचारधारा में बने रहना कठिन होता है। बावजूद इसके यह बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि भावधारा में संगठित होकर विचारधारा में बदल जाने की भी नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है। भावधारा और विचारधारा में स्वभावगत विरोध का संबंध नहीं होता है। यह जरूर है कि चतुर-सुजान लोग भावधारा और विचारधारा में विरोध का संबंध विकसित करने में दिन-रात लगे रहते हैं। ऐसे लोग भावधारा को विचारधारा का स्थानापन्न बना देने की युक्ति भिड़ाते रहते हैं। भावधारा का विचारधारा में परिष्करण और अंतरण एक स्वाभाविक एवं अग्रमुखी प्रक्रिया है। बिना किसी परिष्करण के भावधारा को विचारधारा का एवजी बनाना प्रतिगामी प्रक्रिया है। गौर से देखने पर यह साफ होते बहुत देर नहीं लगती है कि विचारधारा के विरोधी किस प्रकार भावधारा का इस्तेमाल अपना मतलब गाँठने के लिए करते हैं। इसलिए आज कुछ ऐसे लोग भी विचारधारा के सवाल पर घृणा से सीधे नाक-भौं सिकोरते हुए भावधारा में बहते हुए देखे जा सकते हैं, जिनके लिए कल तक विचारधारा का बड़ा महत्त्व था। दूसरी तरफ कुछ लोग विचारधारा के सवाल पर अनुराग से भावुक-लगाव प्रदर्शित करते हुए विचारधारा को जड़ बनाने के कूट-उद्यम में लग जाते हैं। अक्सर, इस भावुक लगाव को, अपने कूट-उद्यम को वे अपनी विचारधारात्मक निष्ठा मानते हैं। ये दोनों ही प्रकार के लोग विचारधारा को समझने में एक ही प्रकार की गलती करते हैं और एक ही प्रकार से विचारधारा की गतिमयता को क्षतिग्रस्त करते हैं। घृणा और प्रेम की समाज-सापेक्षता पर ठीक से गौर नहीं कर पाने के कारण ही ऐसी गलतियाँ बार-बार दुहरायी जाती रहती है। यह सच है कि सामान्य लोगों के लिए विचारधारा के प्रति लगाव और अलगाव का बहुत बड़ा आधार भावुकता ही रचती है। तथापि, यह बात सामान्य लोगों के लिए ही सच है। ध्यान में यह रखना भी आवश्यक है कि यह ‘सामान्य’ तत्त्व अपने मात्रात्मक विस्तार के साथ सामान्य को विशेष में बदल देता है। प्राकृतिक अनुभव यह है कि भूमि कठिन होती है और आकाश नरम। सांस्कृतिक अनुभव यह है कि भूमि अपेक्षाकृत निरापद होती है और आकाश अपेक्षाकृत जोखिमों से भरा हुआ। विचारधारा के लिए भूमि से ऊपर उठकर आकाश तक पहुँचना जरूरी होता है।
कोई भी महत्त्वपूर्ण रचनाकार साहित्य में वैचारिकी के महत्त्व को जानता है। अकुंठित विवेक को सक्रिय रखने की चुनौती को भी खूब समझता है। विभिन्न शक्तिकेंद्रों के द्वारा तैयार किये गये बंधन की पगबाधाओं को भी जानता है और इससे मुक्त रहकर रचना में सक्रिय रहने के महत्त्व को भी जानता है। दिमागी गुलामी से आजाद होना रचना और रचनाकार की पहली और प्रामाणिक प्रेरणा होती है। अब जो लोग अपने को प्रतिबद्ध रचनाकार मानते हैं, उन्हें बार-बार अपने खुद के रचनाकार से सवाल करना चाहिए कि उनकी प्रतिबद्धता किससे है। क्या उनकी प्रतिबद्धता उनके 'स्व' के संकुचन का निषेध करने में मदद करती है या नहीं, अविवेकी भीड़ की 'भेड़ियाधसान' का हिस्सा बन जाने से रोकती है या नहीं! यदि हमारी प्रतिबद्धता हमारे रचनाकार के स्व के संकोचन या अविवेकी भीड़ का हिस्सा बनने से नहीं रोकती है तो, हमें अपनी प्रतिबद्धता की पुनर्परीक्षा की कष्टकर प्रक्रिया से गुजरना ही होगा। यह प्रक्रिया कष्टकर इसलिए होगी कि प्रतिबद्धता की पुनर्परीक्षा असल में खुद को कसौटी पर चढ़ाने की प्रक्रिया होगी। कसौटी पर चढ़ने की प्रक्रिया कष्टकर तो होती ही है, साहसिक भी होती है!
दिमागी गुलामी से आजादी साहित्य का मुख्य सरोकार है। साहित्य में ‘विचारधारा’ और ‘भावधारा’ की संगति और संहति के संतुलन का सवाल प्रमुख है। इस संतुलन को साधते हुए अपने और साथ ही अपने पाठकों के लिए दिमागी गुलामी से आजादी हासिल करने का रास्ता निकालना साहित्यकार की मूल प्रतिबद्धता है। लेखक की वास्तविक प्रतिबद्धता मानसिक गुलामी से आजाद होने का आधार रचती है। जिस प्रतिबद्धता से मानसिक गुलामी की जकड़बंदी और मजबूत ही होती है, वह लेखक की प्रतिबद्धता नहीं हो सकती है, किसी और की भले हो।
दिमागी गुलामी से आजादी साहित्य का मुख्य सरोकार है। साहित्य में ‘विचारधारा’ और ‘भावधारा’ की संगति और संहति के संतुलन का सवाल प्रमुख है। इस संतुलन को साधते हुए अपने और साथ ही अपने पाठकों के लिए दिमागी गुलामी से आजादी हासिल करने का रास्ता निकालना साहित्यकार की मूल प्रतिबद्धता है। लेखक की वास्तविक प्रतिबद्धता मानसिक गुलामी से आजाद होने का आधार रचती है। जिस प्रतिबद्धता से मानसिक गुलामी की जकड़बंदी और मजबूत ही होती है, वह लेखक की प्रतिबद्धता नहीं हो सकती है, किसी और की भले हो।
अज्ञेय के संदर्भ में कृष्णदत्त
पालीवाल कहते हैं, 'अज्ञेय को पुराने
मठाधीशों, आचार्यों, विचारधाराओं
के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों से निरन्तर विरोध झेलना
पड़ा। इस अन्धी, विरोधी हिन्दी आलोचना से जुड़ा एक पीड़ादायक
इतिहास है। ••• दरअसल, अज्ञेय
किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए हैं। अपने रचना-कर्म
में वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं, उनकी दृष्टि
में मानव के लिए स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता से बड़ा कोई मूल्य नहीं है। इस
स्वाधीन-चिन्तन के कारण ही हिन्दी की असाध्यवीणा अज्ञेय के हाथों ही बजी। वे ही
इसके प्रियंवद साधक हैं।' स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता और विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकता क्या होती है, इसे अज्ञेय को समझने के अगले प्रयास में देखने की कोशिश करेंगे साथ ही विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों की पहचान की भी कोशिश करेंगे।
बुधवार, 17 सितंबर 2014
मुक्तिबोध को समझने की कोशिश में
मुक्तिबोध को समझने की कोशिश में
———
आजकल हवा में शोर बहुत और संवाद कम है। इस शोर में अपने समकालीनों से भी संवाद मुश्किल हो रहा है, पुरखों से संवाद की तो बात ही क्या। अपने पुरखों से संवाद करना हमारी जरूरत है। यह संवाद कैसे हो सकता है और यह जरूरी– ही क्यों है! यह संभव है उनकी स्मृतियों और लिखे हुए को उनके परिप्रेक्ष्य में समझा जाये और उसके प्रासंगिक अंश को अपने जीवन अनुभव के रूप में बरता जाये कुछ इस तरह से कि यह हमारा अपना जीवन अनुभव है। ध्यान में होना ही चाहिए कि उनके अंतर्विरोधों को उनके तथा उनके समय के साथ ही अपने तथा अपने समय के अंतर्विरोधों से जोड़कर भी देखना जरूरी है। यह जटिल है उतना ही संवेदनशील है।
एक गहरे आत्म-साक्षात्कार से गुजरा होगा। यह आत्म-धिक्कार तो कतई नहीं हो लेकिन अपनी धारणाओं के आंतरिक टूट-फूट को सहने तथा उसकी क्षति-पूर्त्ति के लिए तैयार रहना होगा। शुरू में ही साफ कर देना उचित है कि इस आत्म-साक्षात्कार की बात उनके प्रसंग में हैं जो किसी-न-किसी स्तर पर खुद को मार्क्सवाद से जोड़ते हैं या कम-से-कम खुद को मार्क्सवाद से जोड़ने का विरोध नहीं करते हैं।
एक दौर था जब हिंदी साहित्य के वैचारिक या आलोचनात्मक मिजाज के भीतरी परिवृत्त में मार्क्सवाद सक्रिय था, और अधिकतर संदर्भ में भल्गर समझ के साथ सक्रिय था। उस समय, एक ऐसी बाइनरी बन गई थी कि या तो आप मार्क्सवाद के समर्थक हैं या फिर विरोधी हैं। बीच की कोई स्थिति नहीं हो सकती थी। यह कैसे हुआ! क्यों हुआ! इसका असर क्या हुआ! ये सब अलग-अलग दिखते हैं, कदाचित हैं भी लेकिन अपनी बुनियाद में एकाकार भी हैं। इन पर अलग से बात की जा सकती है। हिंदी के वैचारिक में सक्रिय मार्क्सवाद सक्रियता और सामाज-परिवर्त्तन या व्यवस्था-परिवर्त्तन की गहरी नैतिक और राजनीतिक आकांक्षा से जुड़कर जो रूप ग्रहण करता है, वह असल में मार्क्सवाद न होकर मार्क्साद-लेनिनवाद है।
लेनिन का शासन काल दिसंबर 1922 से जनवरी 1924 तक का है। लगभग 14 महीना लेनिन का शासन काल रहा। इसके बाद जनवरी 1924 से मार्च 1953 तक स्टालीन का शासन काल रहा। लगभग 30 साल। लेनिन की कार्य-दृष्टि और स्टालीन की कार्य-शैली के तर्द्वंद्व और अंतर्विरोध पर तथा रूस में इसके प्रभाव और वैश्विकता अलग से बात की जा सकती है। यहाँ तो बस यह समरण ही काफी है कि 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ सक्रिय हुआ और 1953 तक आते-आते वह आत्म-गतिरुद्धता की तरफ बढ़ने लगा। इसी दौरान विश्वयुद्ध भी हुआ और आधुनिक भारत में जनतांत्रिक व्यवस्था का रूपाकार भी संगठित हुआ। चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह से महात्मा गाँधी की भारत में राजनीतिक सक्रियता को जोड़कर देखे तो वह 1918 का साल था। 1921 से तो महात्मा गाँधी राजनीति में पूरी तरह सक्रिय और और प्रभावी हो गये थे। उस दौर में किसी भी भारतीय के लिए निरपेक्ष रहना मुमकीन नहीं था। 47 वर्ष की जिंदगी (13 नवंबर 1917 से 11 सितंबर 1964) जीनेवाले मुक्तिबोध का भी यही दौर था।
इतनी चर्चा के बाद अब सोचना यह है कि मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे या नहीं थे या यह कि मुक्तिबोध को मार्क्सवाद से जोड़ना उचित है या नहीं। मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, लेकिन उस अर्थ में मार्क्सवादी नहीं थे, जिस अर्थ में मार्क्सवाद-विरोधी मार्क्सवाद को समझते हैं। मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, लेकिन उस अर्थ में मार्क्सवादी नहीं थे, जिस अर्थ में मार्क्सवाद के कर्त्ता-धरता मार्क्सवाद को समझते हैं। मार्क्सवाद-विरोधी के अर्थ में भी मार्क्सवादी नहीं थे और मार्क्सवाद के कर्त्ता-धरता के अर्थों में भी मार्क्सवादी नहीं थे! तो फिर कैसे मार्क्सवादी थे! इस जटिल प्रश्न को समझना मेरे लिए तो बहुत ही मुश्किल है! मुश्किल है मगर ध्यान रहे, मुक्तिबोध गलत दर्शन-शास्त्र ▬▬ (false philosophy) के प्रति बहुत अधिक सतर्क थे। यह सतर्कता ‘ब्रहमराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ तक फैली हुई है।
चलिए, वैश्विक कारकों के साथ स्थानिक कारकों की ओर भी ताक-झाँक कर लें। स्थानिक कारकों में सबसे महत्त्वपूर्ण कारक का नाम है, अज्ञेय! जी सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायान ‘अज्ञेय’! 07 मार्च 1911 से 04 अप्रैल 1984 जीवन काल है अज्ञेय का। अज्ञेय भी हिंदी साहित्य के शिखर-आसीन संस्कृति पुरुष हैं। अज्ञेय साहित्यिक व्यक्तित्व हिंदी साहित्य के वैचारिक मिजाज का एक और परिवृत्त था। इस परिवृत्त से छिटकाव कई बार मुक्तिबोध के मार्क्सवाद से लगाव के रूप में प्रकट होता है, जिसे भक्त लोग अज्ञेय ‘और’ मुक्तिबोध के रूप में नहीं अज्ञेय ‘या’ मुक्तिबोध के रूप में समझते कम तथा समझाते अधिक रहे हैं। मुक्तिबोध के मार्क्सवाद से लगाव को समझने के लिए इस छिटकाव को समझना होगा। समझने में भूल हो सकती है, यदि इस छिटकाव की स्थानिक समझ के दबाव में वैश्विक संदर्भ आँख से ओझल हो जाये। नजर, स्थानिक और वैश्विक दोनों पर टिकाये रखना जरूरी और अनिवार्य है।
मुक्तिबोध ने 1939 में लिखा, 'मैं व्यक्तिवादी (egoist) नहीं हूँ। क्षमा करना। मुझे उससे अत्यंत घृणा है। मेरा अन्तर तो विस्तार चाहता है▬▬ वह इतना बड़ा होना चाहता है कि सम्पूर्ण विश्व होगा उसमें समा जाये। परन्तु शायद इस जीवन में यह संभव नहीं है▬▬ मुझे कई दफ़ा मरना होगा, तब समझ में आयेगा कि जीवन क्या है?
मुक्तिबोध ने 1939 में लिखा, 'मैं व्यक्तिवादी (egoist) नहीं हूँ। क्षमा करना। मुझे उससे अत्यंत घृणा है। मेरा अन्तर तो विस्तार चाहता है▬▬ वह इतना बड़ा होना चाहता है कि सम्पूर्ण विश्व होगा उसमें समा जाये। परन्तु शायद इस जीवन में यह संभव नहीं है▬▬ मुझे कई दफ़ा मरना होगा, तब समझ में आयेगा कि जीवन क्या है?
मैं साम्यवादी या समाजवादी भी नहीं हूँ। विश्व-समाज आजकल पतन के गहन गर्त में है, जिसका कारण है उनका गलत दर्शन-शास्त्र ▬▬ (false philosophy)। आजकल का समाज व्यक्ति की गुणमत्ता (genious) को कुचल देता है, केवल मूर्ख और पेटू majority के लिए। लोगों के मनों को निर्जीव और जड़वत् समझ लिया गया है। उनको चाहे जिस काम में लगाया जा सकता है। बुद्धिमान और गुणवान व्यक्ति उत्पन्न करना आज के समाज का इष्ट नहीं, यह मशीनमैन चाहता है।
समाज का धर्म बुद्धिवान और गुणवान (genious) मनुष्यों को पैदा करना होना चाहिए।'[1]
इसको ऐसे समझा जा सकता हैः
1. 1939 भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए भी महत्त्वपूर्ण साल है। 1939 में ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस कई तरह के विरोध के बावजूद काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे। यह कोई छोटी घटना नहीं थी, इसके प्रभाव पर विस्तार से बात की जा सकती है। यहाँ संकेत ही काफी है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना मात्र तीन साल पहले हुई थी। विश्वयुद्ध का वह दौर था। 47 वर्ष की जिंदगी (13 नवंबर 1917 से 11 सितंबर 1964) जीनेवाले मुक्तिबोध को 22 वर्ष की उम्र में यह सफाई देनी पड़ी कि वे व्यक्तिवादी नहीं हैं। यानी किसी तरफ से उन पर यह आरोप लगा होगा कि वे व्यक्तिवादी हैं। इस तरह के आरोप, जो वह होता नहीं है वही होने का आरोप, लेखकों पर लगते ही रहते हैं। ऐसा आरोप कौन या किस तरह के लोग लगा सकते हैं, यह अनुमान बहुत मुश्किल नहीं है। वे लोग तो इस तरह का आरोप नहीं लगा सकते हैं जो व्यक्तिवाद के समर्थक विचार या विचारधारा से जुड़े होंगे। मुक्तिबोध आत्म-विस्तार की भी बात करते हैं।
2. मुक्तिबोध आत्म-विस्तार की भी बात करते हैं, लेकिन जोर देकर अपने साम्यवादी या समाजवादी होने का भी निषेध करते हैं। यह निषेध क्यों करना पड़ा! इसे समझना भी जरूरी है। क्या यह साम्यवादी या समाजवादी होने का निषेध की बात व्यक्तिवादी होने के आरोप से तंग आकर सार्वजनिक तौर पर कही गई है या इसमें कोई गहरी बात है! मेरा मन कहता है इसमें कई गहरी बात है, इन पर गौर करना आज भी प्रासंगिक है। वह कौन सा गलत दर्शन-शास्त्र ▬▬ (false philosophy) है जिसकी ओर मुक्तिबोध इशारा करते हैं? वह दर्शन जो, व्यक्ति की गुणमत्ता (genious) को कुचल देता है, लोगों के मनों को निर्जीव और जड़वत् समझता, जो समझता है कि लोगों को चाहे जिस काम में लगाया जा सकता है, जो विचारधारा बुद्धिमान और गुणवान व्यक्ति की जगह मशीनमैन चाहता है। समझना क्या सचमुच कठिन है कि मुक्तिबोध किस विचारधारा की किन कमियों की ओर संकेत कर रहे थे, पूरी मनोव्यथा के साथ! आज भी साम्यवादी या समाजवादी विचारधारा के लोगों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस संदर्भ में गहराई से सोचना चाहिए। इस संदर्भ में गहराई से सोचना संभव हुआ होता तो परिदृश्य कुछ और ही होता! जी क्या होने से क्या होता यह कहना बहुत मुश्किल है, लेकिन आज भी इसे आजमाया तो जा ही सकता है।
3. मुक्तिबोध भले ही कहें कि वे साम्यवादी या समाजवादी भी नहीं हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि वे यह न भी हों तो भी होना वही चाहते रहे; हाँ अधिक समावेशी साम्यवादी या समाजवादी। नेमि बाबू को उन्होंने व्यक्तिगत पत्र में जो लिखा उसकी भाषा और दर्द को समझने की जरूरत है। लिखा, 'I have been again made P.M. (Party Member ▬▬ कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य) I have to do certain fixed duties, and it is a happiness to do them. In an ordanance factory I shall loss this. More than that, I shall have to resign from the party. And I cannot even bear the idea of this....'[2] पार्टी के तत्कालीन महासचिव को जो, स्पष्ट कारणों से, बेनामी था वह भी बार-बार समझने की कोशिश उपयोगी हो सकती है।
मुक्तिबोध को समझना जरूरी है। इस संदर्भ में गहराई से सोचना और पुरखों के अंतर्द्वंद्व को समझना जरूरी और जारी प्रक्रिया है ...
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[1] मुक्तिबोधः आधुनिक समाज का धर्मः कर्मवीर, खण्डवा, 1 अप्रैल 1939। मुक्तिबोध रचनावली 6: राजकमल प्रकाशन
[2] मुक्तिबोधः नेमिचन्द्र जैन को लिखा गया पत्र, दिनांक 12.3.43: मुक्तिबोध रचनावली 6 : राजकमल प्रकाशन
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